5 Sept 2020

Simple remedies during Pitru Paksha will lead you to desired goals

एक सरल और प्रभावी उपाय करें। पितृ पक्ष भर दिवंगत आत्मा के चित्र के सम्मुख धूप, दीप, अगरबत्ती जलाएं। माला या पुष्प अर्पित करें।

धर्म ग्रंथों के अनुसार श्राद्ध के सोलह दिनों में
लोग अपने पितरों को जल देते हैं


ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है




श्राद्ध करते समय ध्यान रखने योग्य बातें


धर्म ग्रंथों के अनुसार श्राद्ध के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है।

वर्ष के किसी भी मास तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है।पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है।

इसी दिन से महालय (श्राद्ध) का प्रारंभ भी माना जाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्षभर तक प्रसन्न रहते हैं। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है।

श्राद्ध में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्ड दान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। इसी आशा के साथ वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं। यही कारण है कि हिंदू धर्म शास्त्रों में प्रत्येक हिंदू गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है।

श्राद्ध से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं। मगर ये बातें श्राद्ध करने से पूर्व जान लेना बहुत जरूरी है क्योंकि कई बार विधिपूर्वक श्राद्ध न करने से पितृ श्राप भी दे देते हैं। आज हम आपको श्राद्ध से जुड़ी कुछ विशेष बातें बता रहे हैं, जो इस प्रकार हैं-

1- श्राद्धकर्म में गाय का घी, दूध या दही काम में लेना चाहिए। यह ध्यान रखें कि गाय को बच्चा हुए दस दिन से अधिक हो चुके हैं। दस दिन के अंदर बछड़े को जन्म देने वाली गाय के दूध का उपयोग श्राद्ध कर्म में नहीं करना चाहिए।

2- श्राद्ध में चांदी के बर्तनों का उपयोग व दान पुण्यदायक तो है ही राक्षसों का नाश करने वाला भी माना गया है। पितरों के लिए चांदी के बर्तन में सिर्फ पानी ही दिए जाए तो वह अक्षय तृप्तिकारक होता है। पितरों के लिए अर्घ्य, पिण्ड और भोजन के बर्तन भी चांदी के हों तो और भी श्रेष्ठ माना जाता है।

3- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाते समय परोसने के बर्तन दोनों हाथों से पकड़ कर लाने चाहिए, एक हाथ से लाए अन्न पात्र से परोसा हुआ भोजन राक्षस छीन लेते हैं।

4- ब्राह्मण को भोजन मौन रहकर एवं व्यंजनों की प्रशंसा किए बगैर करना चाहिए क्योंकि पितर तब तक ही भोजन ग्रहण करते हैं जब तक ब्राह्मण मौन रहकर भोजन करें।

5- जो पितृ शस्त्र आदि से मारे गए हों उनका श्राद्ध मुख्य तिथि के अतिरिक्त चतुर्दशी को भी करना चाहिए। इससे वे प्रसन्न होते हैं। श्राद्ध गुप्त रूप से करना चाहिए। पिंडदान पर साधारण या नीच मनुष्यों की दृष्टि पहने से वह पितरों को नहीं पहुंचता।

6- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाना आवश्यक है, जो व्यक्ति बिना ब्राह्मण के श्राद्ध कर्म करता है, उसके घर में पितर भोजन नहीं करते, श्राप देकर लौट जाते हैं। ब्राह्मण हीन श्राद्ध से मनुष्य महापापी होता है।

7- श्राद्ध में जौ, कांगनी, मटर और सरसों का उपयोग श्रेष्ठ रहता है। तिल की मात्रा अधिक होने पर श्राद्ध अक्षय हो जाता है। वास्तव में तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं। कुशा (एक प्रकार की घास) राक्षसों से बचाते हैं।

8- दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए। वन, पर्वत, पुण्यतीर्थ एवं मंदिर दूसरे की भूमि नहीं माने जाते क्योंकि इन पर किसी का स्वामित्व नहीं माना गया है। अत: इन स्थानों पर श्राद्ध किया जा सकता है।

9- चाहे मनुष्य देवकार्य में ब्राह्मण का चयन करते समय न सोचे, लेकिन पितृ कार्य में योग्य ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए क्योंकि श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राह्मणों द्वारा ही होती है।

10- जो व्यक्ति किसी कारणवश एक ही नगर में रहनी वाली अपनी बहिन, जमाई और भानजे को श्राद्ध में भोजन नहीं कराता, उसके यहां पितर के साथ ही देवता भी अन्न ग्रहण नहीं करते।

11- श्राद्ध करते समय यदि कोई भिखारी आ जाए तो उसे आदरपूर्वक भोजन करवाना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसे समय में घर आए याचक को भगा देता है उसका श्राद्ध कर्म पूर्ण नहीं माना जाता और उसका फल भी नष्ट हो जाता है।

12- शुक्लपक्ष में, रात्रि में, युग्म दिनों (एक ही दिन दो तिथियों का योग)में तथा अपने जन्मदिन पर कभी श्राद्ध नहीं करना चाहिए। धर्म ग्रंथों के अनुसार सायंकाल का समय राक्षसों के लिए होता है, यह समय सभी कार्यों के लिए निंदित है। अत: शाम के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए।

13- श्राद्ध में प्रसन्न पितृगण मनुष्यों को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष और स्वर्ग प्रदान करते हैं। श्राद्ध के लिए शुक्लपक्ष की अपेक्षा कृष्णपक्ष श्रेष्ठ माना गया है।

14- रात्रि को राक्षसी समय माना गया है। अत: रात में श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए। दोनों संध्याओं के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए। दिन के आठवें मुहूर्त (कुतपकाल) में पितरों के लिए दिया गया दान अक्षय होता है।

15- श्राद्ध में ये चीजें होना महत्वपूर्ण हैं- गंगाजल, दूध, शहद, दौहित्र, कुश और तिल। केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है। सोने, चांदी, कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल उपयोग की जा सकती है।

16- तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णु लोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।

17- रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं। आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।

18- चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।

19- भविष्य पुराण के अनुसार श्राद्ध 12 प्रकार के होते हैं, जो इस प्रकार हैं-
1- नित्य, 2- नैमित्तिक, 3- काम्य, 4- वृद्धि, 5- सपिण्डन, 6- पार्वण, 7- गोष्ठी, 8- शुद्धर्थ, 9- कर्मांग, 10- दैविक, 11- यात्रार्थ, 12- पुष्टयर्थ

20- श्राद्ध के प्रमुख अंग इस प्रकार हैं-

तर्पण- इसमें दूध, तिल, कुशा, पुष्प, गंध मिश्रित जल पितरों को तृप्त करने हेतु दिया जाता है। श्राद्ध पक्ष में इसे नित्य करने का विधान है।

भोजन व पिण्ड दान- पितरों के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन दिया जाता है। श्राद्ध करते समय चावल या जौ के पिण्ड दान भी किए जाते हैं।

वस्त्रदान- वस्त्र दान देना श्राद्ध का मुख्य लक्ष्य भी है।

दक्षिणा दान- यज्ञ की पत्नी दक्षिणा है जब तक भोजन कराकर वस्त्र और दक्षिणा नहीं दी जाती उसका फल नहीं मिलता।

21 – श्राद्ध तिथि के पूर्व ही यथाशक्ति विद्वान ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलावा दें। श्राद्ध के दिन भोजन के लिए आए ब्राह्मणों को दक्षिण दिशा में बैठाएं।

22- पितरों की पसंद का भोजन दूध, दही, घी और शहद के साथ अन्न से बनाए गए पकवान जैसे खीर आदि है। इसलिए ब्राह्मणों को ऐसे भोजन कराने का विशेष ध्यान रखें।

23- तैयार भोजन में से गाय, कुत्ते, कौए, देवता और चींटी के लिए थोड़ा सा भाग निकालें। इसके बाद हाथ जल, अक्षत यानी चावल, चन्दन, फूल और तिल लेकर ब्राह्मणों से संकल्प लें।

24- कुत्ते और कौए के निमित्त निकाला भोजन कुत्ते और कौए को ही कराएं किंतु देवता और चींटी का भोजन गाय को खिला सकते हैं। इसके बाद ही ब्राह्मणों को भोजन कराएं। पूरी तृप्ति से भोजन कराने के बाद ब्राह्मणों के मस्तक पर तिलक लगाकर यथाशक्ति कपड़े, अन्न और दक्षिणा दान कर आशीर्वाद पाएं।

25- ब्राह्मणों को भोजन के बाद घर के द्वार तक पूरे सम्मान के साथ विदा करके आएं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों के साथ-साथ पितर लोग भी चलते हैं। ब्राह्मणों के भोजन के बाद ही अपने परिजनों, दोस्तों और रिश्तेदारों को भोजन कराएं।

26- पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है। पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में सपिंडों ( एक ही परिवार के) को श्राद्ध करना चाहिए। एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है। पितृ पक्ष में श्राद्ध, तर्पण,पिंडदान का विज्ञानं भाग (1)--

पितरों को श्रद्धा दें ! वे हमें शक्ति, संरक्षण और समृद्धि देंगे

मरणोत्तर संस्कार और उसका महत्व

हमारे श्री सत्य सनातन धर्म (हिन्दू धर्म) में मानव जीवन में प्रमुख रूप से सोलह संस्कारों का अत्यंत वैज्ञानिक महत्व है।

 इसमें मृत्यु के बाद किया जाने वाला श्राद्ध, तर्पण,पिंडदान (मरणोत्तर संस्कार ) को न समझने के कारण बहुत से व्यक्ति इसे ब्राह्मणों का ढोंग, ढकोसला कह आलोचना करने लगते हैं। जबकि सच्चाई इसके ठीक विपरीत है।

इस विधान की उपेक्षा अवहेलना उनके और उनके परिवार के लिए विनाशकारी ही सिद्ध होता है।


मृत्यु के बाद जीवात्मा की तीन गतियां

(1)प्रेत योनि (2) पितर योनि (3) देव योनि


प्रेत योनि:-- यह सबसे निम्न स्तर की योनि है।
 सामान्य जन जो अपने जीवन काल में साधना, उपासना नहीं करते, पवित्र सात्विक जीवन नहीं जीते, जिनका जीवन सांसारिक विषय वासनाओं में लिप्त और स्वार्थ पूर्ण रहता है

साथ ही वे लोग जिनकी मृत्यु जहर खाने से, फाँसी से, आग से जलने से, किसी दुर्घटना से, या उनकी हत्या की गयी हो , ऐसे लोग प्रेत योनि में चले जाते हैं।

प्रेत योनि में गए व्यक्ति की प्रेतात्मा संसारिक भोगों से अतृप्त होने के कारण, विषयासक्ति के कारण जीवित व्यक्तियों के शरीर पर कब्ज़ा जमाकर अपनी विषय वासना तृप्ति का प्रयास करतीं है।

आत्महत्या, हत्या या दुर्घटना में मरे लोगों की प्रेतात्मा आक्रोशित हो प्रतिशोध की भावना से आक्रमण करती है। यही कारण है कि प्रेत बाधा ग्रस्त व्यक्ति का जीवन खतरे में पड़ जाता है। उसका पूरा परिवार तनावग्रस्त होकर उसके उपचार के लिए इधर उधर भटकने लगता है।

सबसे बड़ी समस्या:--

मृत्तात्मा का सबसे अधिक लगाव अपने परिवार से ही होता है। मृत्यु के बाद प्रेतात्मा अपने घर परिवार में ही मंडराती रहती है,
पहले की तरह सबसे संपर्क रखना चाहती है पर अदृश्य और अशरीरी होने के कारण जब ऐसा नहीं हो पाता,
 तब वह परिवार में किसी को मारकर उसे प्रेत योनि में लाकर अपने साथ रखने का प्रयास करती है। ऐसे में उस परिवार के सदस्य ज्यादाकर छोटे बच्चे, स्त्रियां, किशोर, युवा इत्यादि हारी, बीमारी, दुर्घटना का शिकार होने लगते हैं।

आज अधिकांशतः परिवारों में लोग मांसमछली, अंडा, शराब आदि का सेवन कर रहे हैं। उनके घरों में देव मन्दिर या पूजा स्थली का अभाव है।
सनातन धर्म के पूर्ण वैज्ञानिक उपासना पद्धति:--
गायत्री जप, यज्ञ, सोलह संस्कारों को त्याग कर ,
साईं बाबा, निर्मल बाबा, जय गुरुदेव, शिव चर्चा आदि अवैज्ञानिक ढंग से पूजा पाठ करने में लगे हैं।
अतः ऐसे व्यक्ति परिवार इस भूत-प्रेत पिशाचों के प्रभाव में जल्दी आ जाते हैं और परिवार एक के बाद एकसंकटों में घिरता चला जाता है।

भूत,प्रेत बाधा किसे होती है ??
उससे कैसे बचें ??

हमारा शरीर एक घर के समान है। जिस प्रकार कोई मकान बहुत दिनों से बंद पड़ा हो उसमें कोई नहीं रहता हो तो उस मकान में साँप, बिच्छू, मकड़ी के जाले, कीड़े ,मकोड़े , चमगादड़ इत्यादि रहने लगते हैं।

उसी प्रकार जो व्यक्ति नियमित गायत्री मंत्र का जप नहीं करते, उदीयमान सूर्य के बीच अपने इष्ट देवी देवता का ध्यान नहीं करते, जिनके घरों में दैनिक,साप्ताहिक या मासिक यज्ञ नहीं होता।

 जिनकी आहार, विहार , दिनचर्या सात्विक, पवित्र नहीं होती उनके ह्रदय में ईश्वरीय चेतना का प्रकाश नहीं होता ऐसे अन्धकारयुक्त , कमजोर जीवात्मा वाले व्यक्ति पर भूत, प्रेत आदि का प्रभाव शीघ्र होता है।

ऐसे में इन खतरों से बचने के लिए नियमित साधना उपासना के अतिरिक्त वर्ष् में एक बार पितृपक्ष में दिवंगत आत्माओं की प्रेत योनि से मुक्ति और परिवार की रक्षा हेतु ही श्राद्ध,तर्पण,पिंडदान का क्रम हमारे महान ऋषियों द्वारा बनाया गया है।
  
पितृपक्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्ण अमावस्या तक  
पितरों को श्रद्धा दें ! और सुख सौभाग्य की वृद्धि करें !

मरणोत्तर संस्कार और उसका महत्व:--

मृत्यु के बाद जीवात्मा की तीन गतियाँ होती हैं:--

(1)प्रेत योनि (2) पितर योनि (3) देव योनि।

प्रेत योनि क्यों मिलती है, उसका परिवार पर अनिष्टकारी प्रभाव कैसे पड़ता है। भूत प्रेत बाधा से स्वयं और परिवार की रक्षा किस प्रकार हो , इन सभी के बारे में आपने पिछले सन्देश में विस्तार से पढ़ा। अब आगे पढ़ें :--

(2) पितर योनि:--

यह प्रेत योनि और देव योनि के बीच की योनि है।
कुछ ऐसे व्यक्ति जो सज्जनता पूर्वक जीवन जीते रहे। सात्विक ,पवित्र, सादगी पूर्ण और परोपकार युक्त जीवन जीते रहे।
 ऐसे लोग मृत्यु के बाद भी अपने परिवार के लिए अपना स्नेह,संरक्षण, आशीर्वाद बनाये रखते हैं। अदृश्य रूप में वे परिवार की रक्षा करते हैं। परिवार पर आनेवाले भविष्य के संकट से स्वप्न आदि के माध्यम से परिवार के लोगों को सचेत करते हैं।

ऐसी दिवंगत आत्माओं को ही पितर कहते हैं। उनकी पुण्य तिथि, पितृ पक्ष या विवाह आदि मांगलिक कार्यों में भी दिव्य पितरों का स्मरण पूजन कर उनका आशीर्वाद लिया जाता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि :--

(1) प्रेत योनि में गए पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान इसलिए किया जाना जरुरी है ताकि उनकी प्रेतयोनि से मुक्ति हो जाये और हमारा परिवार उनके द्वारा किये जाने वाले अनिष्टों से बच जाये।

इसी प्रकार (2) पितरों को भी श्राद्धतर्पण, पिंडदान इसलिए आवश्यक हो जाता है कि उनका स्नेह, संरक्षणव आशीर्वाद हमारे परिवार पर सदैव बना रहे।

(3) देव योनि:--

अपने जीवनकाल में जो व्यक्ति उच्चस्तरीय साधनात्मक जीवन जीते हैं, देश,धर्म, संस्कृति, समाज के हित में अपना जीवन अर्पित कर देते हैं , ऐसे संत, शहीद, समाज सुधारक ही मृत्यु के बाद देवयोनि में चले जाते हैं।

उनके इस अमूल्य योगदान के लिए , जैसे महापुरुषों की आजकल जयंती या पुण्य तिथि मनाई जाती है।
वैसे ही सनातन धर्मावलंबी हिन्दू केवल परिवार के पूर्वजों के लिए ही नहीं बल्कि समाज के ऐसे सभी महापुरुषों के लिए भी पितृ पक्ष में उनके प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए श्राद्ध,तर्पण, पिंडदान करते हैं।

पितृपक्ष में श्राद्ध तर्पण किस दिन करें

(1) जिस तिथि को आपके पूर्वज का देहांत हुआ , पितृ पक्ष में उसी तिथि को यह कृत्य किसी विद्वान , योग्य ब्राह्मण से संपन्न करायें। यदि स्वयं कर्मकांड के ज्ञाता हों तो स्वयं करें।

किसी के पूर्वज की मृत्यु पंचमी तिथि को हुई हो तो पितृ पक्ष की पंचमी तिथि को उनका श्राद्ध करें।

(2) किसी की मृत्यु पूर्णिमा को हुई हो तो उसका श्राद्ध ,तर्पण आदि भाद्रपद शुक्ल

(3) किसी को तिथि याद न हो तो उसका श्राद्ध,तर्पण आदि पितृपक्ष के अंतिम दिन आश्विन कृष्ण 15 (अमावस्या) अर्थात नवरात्रि कलश स्थापन के एक दिन

पितृ पक्ष में क्या और कैसे करें ?

कुछ लोग उस दिन मुंडन करवा लेते हैं या बाल बनवा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। यह गलत है।

यदि व्यवस्था हो सके तो किसी विद्वान ब्राह्मण जो विधि विधान के ज्ञाता हों उनसे मार्गदर्शन में श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान आदि कृत्य संपन्न कर उन्हें भोजन, वस्त्र, दक्षिणा आदि दें।

यदि ऐसी व्यवस्था न बन पड़े तो :--

एक सरल और प्रभावी उपाय करें। पितृ पक्ष भर दिवंगत आत्मा के चित्र के सम्मुख धूप, दीप, अगरबत्ती जलाएं। माला या पुष्प अर्पित करें।

उनके पूजन के बाद उनका और सभी पूर्वजों का ध्यान करते हुए उनके उपकारों का स्मरण करते हुए कम से कम नित्य एक माला गायत्री महामंत्र जप अवश्य करें।

जप के पश्चात् दाहिने हाथ में जल लेकर उस एक माला गायत्री महामंत्र जप के पुण्य फल को दिवंगत आत्मा की शांति , सद्गति की प्रार्थना करते हुए , उनका नाम लेते हुए जल को उनके चित्र के समीप गिरा दें।

 नियत तिथि या अंतिम दिन(सर्व पितृ अमावस्या को श्रद्धा, सामर्थ्य के अनुसार ब्राह्मण या कन्या भोजन कराएं। हो सके तो गरीब भिक्षुक आदि में कुछ दान पूण्य करें।

पितृपक्ष और नवरात्रों में सात्विक जीवन जियें। माँस, मछली, अंडा, शराब आदि का सेवन न करें।

आशा हैसितंबर से प्रारम्भ होने वाले पितृपक्ष में अपने दिवंगत पूर्वजों के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर उनके स्नेह, संरक्षण और आशीर्वाद के अधिकारी अवश्य बनेंगे।

(जय सनातन धर्म प्रस्तुति):--
सनातन धर्म (हिन्दू धर्म) में श्रद्धा है तो अवश्य शेयर करें


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